अगर योग के मागर् पर चलने तथा यम और िनयम के िस ा ंत का पालन करने म हमारे मन म संदेह उत्प ह तो हम उनका सामना उनके िवरोधी तक के
ारा करना चािहए। उदाहरण के िलए, अगर हम लगता
है िक हम सदा सत्य नहीं बोल सकते तो हम सोचना
चािहए, "ऐसा कैसे हो सकता है िक हम सत्य के साथ समझौता कर और के सामने झूठ बोल और िफर भी
मन की शािन्त पाने की आशा करय़ अगर हर एक यह सोचे िक वह केवल तभी सच बोलेगा जब वह उसके
अनुकूल होगा तो क्या संसार ऐसी दशा म सामंज य के
साथ चल सकेगाय़ क्या अिंहसा के िस ा ंत को इस तरह माना जा सकता है िक हम अपने िमतर् की तो रक्षा कर
65. िवतकार् िंहसादयः कृत-कािरतानुमोिदता लोभ-कर्ोध-मोह-पूवर्का
मृदु-मध्यािधमातर्ा दुःखा ानानन्तफला, इित ितपक्ष-भावन ।
(22-34)
िवरोधी तक
कावरूप इस कार का हो सकता हैऱ िंहसा आिद के ारा अन्ततः दुःख और अ ान की वृि
होती है। ये िंहसा आिद कमर्यि वयं कर सकता है, और
से करवा सकता है या उनकासमथर्न कर सकता है। इन कम
के कारण म लोभ, कर्ोध और मोह होते ह, और ये कोमल, मध्यम औरती कार के हो सकते ह।
(िवतकार्ःऱ िवतकर्, िंहसादयःऱ िंहसा आिद गलत काम, कृत-कािरतानुमोिदताःऱ वयं िकए गए ह (कृत), और से करवाए गए ह (कािरत), या िफर, अनुमोिदताःऱ अनुमोदन िकए गए ह, लोभ-कर्ोध-मोह-पूवर्काऱ िजनके
पहले लोभ, कर्ोध, और मोह होता है, मृदु-मध्यािधमातर्ाःऱ जो कोमल, मध्य, या ती कार के हो सकते ह, दुःखा ानानन्तफलाऱ िजनका पिरणाम अनन्त दुःख, और अ ान म होता है, इित ितपक्ष-भावन ऱ इस कार के
िवचार से संदेह का िनवारण करना चािहए।
35
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
चल ही नहीं सकता। जो बुरे काम हम करते ह उनसे
तो हम हािन होती ही है, लेिकन उन काम से भी हािन होती है िजन्ह करने के िलए हम और को उकसाते ह या
िजनका हम समथर्न करते ह। बहुत-से लोग वयं िकसी
को नहीं मारगे पर और को मारने के िलए ोत्सािहत करगे, या िफर वे िकसी कार की चोरी या पिरगर्ह को
ोत्सािहत करगे जोिक आजकल के समाज म साधारण हो गया है। यह इसिलए है िक अपने लोभ पर हमारा
िनयंतर्ण नहीं है।
िजन बुरे काम का त्यक्ष या अ त्यक्ष रूप से हम समथर्न करते ह वे भी हमारी चेतना पर एक िनशान छोड़ जाते ह। यि गत स ता और सामािजक समरसता
के िलए यम और िनयम के िस ा ंत का िनरपेक्ष रूप से पालन करना आव यक है। ऐसा न होने से समाज
िवशृंखल हो जाएगा।
इस कार के िंचतन से योग के मागर् पर चलते
हुए हमारे मन म जो संदेह उठते ह उनका सामना िकया
जा सकता है।
जब हम पता हो िक हमारे ल य तक पहुँचने का
एक ही मागर् है तो वह मागर् चाहे िजतना भी किठन हो और हम अपने ल य तक पहुँचने म चाहे िकतना
भी समय क्य न लगे, हम उस मागर् पर चलगे ही
क्य िक हम अपने वांिछत ल य तक ले जानेवाला कोई और मागर् है ही नहीं। कुछ दूसरे मागर् यादा सुखद और आकषर्क हो सकते ह, लेिकन यिद वे हम अपने
ल य तक नहीं ले जाते तो वे हमारे िलए बेकार ह और खतरनाक भी हो सकते ह। यम और िनयम के िस ा ंत हम बहुत आकषर्क नहीं लग सकते। अिंहसा, सत्य, अपिरगर्ह, आत्म-िनयंतर्ण आिद म बहुत की रुिच नहीं
होती। जीवन म समृि , सफलता और सुख पाने के िलए बहुत बार िंहसा, पिरगर्ह, ित पधार् और छल का मागर्
छोटा और आसान लगता है। लेिकन यह एक ािन्त है।
िस जमर्न दाशर्िनक इमानुएल काण्ट ने कहा है िक हम नैितक क्षेतर् म ऐसे िस ा ंतो का ितपादन करना
चािहए जो सब पर समान रूप से लागू ह । यिद लोग
िंहसा, पिरगर्ह, चोरी आिद म लगे रह तो िफर समाज
66. अिंहसा- ित ाया ं तत्सि धौ वैर-त्यागः।
(2-35)िजस यि
के अन्दर अिंहसा का भाव आ जाता है उसकी उपि थित म वैर नहीं रहता।(अिंहसा- ित ाया ंऱ अिंहसा के पूरी तरह थािपत हो जाने पर, तत्सि धौऱ उसके िनकटऱ वैर-त्यागःऱ वैर का
त्याग हो जाता है।)
िंहसा का पिरणाम हमेशा िंहसा ही होता है। बु
ने ध मपद म कहा, "वैर से वैर शान्त नहीं होता, केवल अवैर से वैर शान्त होता है। यह शा त िस ा ंत है"। यिद कोई हमारे ित या हमारे ि यजन के ित
िंहसा करता है तो इसके जवाब म हम भी ायः िंहसा
करते ह। "आँख के बदले आँख" का िस ा ंत आम है।
यह ितिकर्या चलती रहती है। यिद कोई हम गाली
देता है और बदले म हम उसे गाली देते ह तो इससे
ि थित िबगड़ती ही है। और यिद हम भड़काए जाने पर भी शान्त रहते ह तो सामने वाले को भी शान्त होने
का एक अवसर िमलता है। हो सकता है िक अगली
बार हमारे साथ यवहार करते हुए वह उतना िंहसक न हो। यिद हम अपने शतर्ुओं को यार द तो वे कभी
न कभी अपनी शतर्ुता छोड़ दगे। इसके पिरणाम तुरंत नहीं िमल सकते। अिंहसा के दो सबसे बड़े पुजारी
ईसा मसीह और महात्मा गा ंधी को िंहसा के ारा मारा
गया था। पर इससे हम अिंहसा के मागर् पर चलने म
िनरुत्सािहत नहीं होना चािहए क्य िक अपने जीवन म शािन्त लाने का और कोई मागर् है ही नहीं। अिंहसा के
अिधकािधक अ यास से हम अपने िवरोिधय का मन जीत सकगे।
साथ ही, सत्य को जानने के िलए भी अिंहसा
आव यक है। जब हम िंहसा पर उतारू होते ह तो हमारा
मन बहुत ही िवक्षु ध होता है। इससे हमंे चार ओर की
वा तिवकता िवकृत रूप म िदखाई पड़ती है। िंहसा की
कृित वाले मनु य को जहा ँ खतरा नहीं होता वहा ँ भी
खतरा िदखाई देता है। जब हमारे मन म शािन्त और
ेम होता है तब हमारे अन्दर सत्य कािशत होता है।
इसिलए संवेगात्मक और बौि क दोन ही दृि य से
अिंहसा का आचरण हमारे जीवन म सहायक है।
पतंजिल का योग-दशर्न-14
36
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
हम सदा िकसी न िकसी उ े य से अपने कमर्
करते ह। पर ऐसा ायः होता है िक हम अपने कम से
जो फल पाना चाहते थे वह नहीं िमलता। इसके कई कारण ह। बहुत बार हम उन पदाथ, यि य, िविधय और पिरि थितय की जानकारी नहीं होती जो हमारे
कमर् से संबंिधत होते ह। कभी-कभी हम िकसी कायर्
को करने की अपनी क्षमता का सही आकलन नहीं
कर पाते। हम कृित के उन िनयम से भी अनजान हो
सकते ह जो उस क्षेतर् म काम कर रहे ह। इसका अथर्
यह है िक अपने बारे म और और के बारे म अ ान या गलत धारणा के कारण हम अपने कमर् का वािञ्छत पिरणाम नहीं िमलता।
अ ान और पक्षपात के कारण हमारी दृि दूिषत हो
67. सत्य- ित ाया ं िकर्या-फला यत्व ।
(2-36)योगी म सत्य की ि थित आ जाने पर उसके कमर् का फल उसके आि त रहता है।
(सत्य- ित ाया ंऱ (योगी म) सत्य थािपत हो जाने पर, िकर्या-फला यत्व ऱ उसके ारा की जाने वाली
िकर्या का फल उसके आि त रहता है।)
जाती है। योगी को अपने कम के फल म कोई यि गत रुिच नहीं होती। वह गीता म बताए गए िन काम कमर्
के िस ा ंत पर चलता है, इसिलए उसके मन म सदा
शािन्त रहती है। मन म अन्दर शािन्त और प ता होने
के कारण वह दूसरे यि य को अिधक अच्छी तरह समझ सकता है, और अपने कम के यावहािरक पक्ष को
अिधक अच्छी तरह स हाल सकता है। गीता कहती है
िक कम म कुशलता ही योग हैऱ योगः कमर्सुकौशल । कम म कुशलता के कारण योगी न कभी ऐसी बात कहता है और न ऐसी योजना बनाता है िजसे पूरा न
िकया जा सके। इस कार वह सदा सत्य के िस ा ंत पर आचरण करके अपने कम का वािञ्छत फल पाने की
ि थित म रहता है।
68. अ तेय- ित ाया ं सवर्-र ोप थान ।
(2-37)कभी भी चोरी न करने की भावना की ि थित पा लेनेपर, (योगी के स मुख) सारे र
(बहुमू यव तुएँ) उपि थत हो जाती ह।
(अ तेय- ित ाया ंऱ अ तेय की ि थित पा लेने पर, सवर्-र ोप थान ऱ योगी के सामने सारे र उपि थत हो
जाते ह।)
जीवन की बहुमू य व तुओं के ित मनु य का
आकषर्ण बहुत वाभािवक है। यि य और रा म अिधक से अिधक स पि जुटाने के िलए बल संघषर्
होता है। अिधकतर यह संगर्ह अन्याय और िंहसा पर आधािरत उपाय के ारा िकया जाता है। मनु य बहुत बार धन म दूसर के भाग हड़प कर धनी बन जाते
ह। इस कार के समाज म धनी मनु य भी वा तव म मानिसक रूप से दिरदर् होते ह क्य िक वे अपना
जीवन मानिसक िवकास के बहुत िनचले तर पर जी
रहे होते ह। उनका मन हमेशा यादा और यादा
भौितक पदाथ को बटोरने म ही लगा रहता है, चाहे
वे पदाथर् कैसे भी िमलंे। वे जीवन म उ तर चीज़ के बारे म सोच ही नहीं सकते। समाज म ऐसे लोग
और से अपनी स ाई िछपाए रहते ह क्य िक उन्ह और के ित संदेह बना रहता है। बाहर से धनी होने
पर भी वे आंतिरक रूप से वा तव म बहुत दिरदर्
जीवन जीते ह।
इसके िवपरीत, योगी को कभी भी िकसी से
िकसी चीज़ की इच्छा नहीं होती। योगी सदा दूसर को
अपनी ही तरह यार करता है। सब मनु य उसके आगे
अपना िदल खोल सकते ह। तब सारा संसार ही उसका
पिरवार बन जाता है, और वह सारे संसार की स पि
को अपनी स पि मान सकता है। िबना िकसी चीज़ पर अिधकार िकए योगी संसार म सब से धनी होता है। इस सूतर् म इस आंतिरक स पि की ओर ही संकेत िकया
गया है।
पतंजिल का योग-दशर्न-14
37
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
as the conviction of being an individu- al self exists, one prays to an almighty God for the resolution of one’s diffi cul- ties. Whether God is imagined to live in heaven, or is imagined as one’s own Self, prayer is equally effective.
Simply put, prayer is a state of surrender. Being in the heart or com- ing out of the head is surrender. The individual conditioned self, realising its powerlessness, bows down or is willing to step aside. This willingness of the false-self or ego-self to step down is the opening of the door to the dun- geon where the unconditioned-Self has been kept imprisoned.
The true-Self’s arrival on the scene is the resolution of the problem. The Self recognizing Self is the play
of love. In this state of surrender, the Source acts like a mother, nurturing, protecting and fulfi lling all the needs.
Prayer and Surrender
The limited personal self, imagin- ing itself all day long to be helpless, small, defenceless, a victim of circum- stances, subject to disease, death, old age and a dozen other dilemmas, prays for the fulfi lment of desires and for protection from calamities.
From the perspective of Indian philosophy, the Self, present in the heart, is the Lord of the Universe, the Master of delusion (maya), and for whom all things are possible. As long
अनन्याि न्तयन्तो मा ं ये जना: पयुर्पासते।
तेषा ं िनत्यािभयु ाना ं योगक्षेमं वहा यह ।।
ananyq1cintayanto mq/ ye janq4 paryupqsate te2q/ nityqbhiyuktqnq/ yogak2ema/ vahqmyaham
Th ere are those who have understood that the Source of everything is always present in the heart as the Self. For such people, staying in the heart, eff ortlessly, is the highest form of wor- ship. Proximity itself becomes worship.
Yoga of Silence Chup Sadhana-14 or
Mansoor Abdulla
38
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
“ The true-Self’s arrival on the scene is the resolution of the problem. The true-Self is already free and whole. The true-Self does not answer the prayer, but is the answer. ”
The highest prayer would be to pray to God for that state, in which one never has to pray for anything again.
In other words, when God is experi- enced as one’s Self, then what is there left to pray for? The personal limited self, realizing that it was always the unlimited Universal Self, is the state of Yoga. Again, it is not that one self is joining the other Self, which is what the word Yoga as union implies, rather the realization that there never were two separate selves. Realization is not an achievement, it is just an under- standing, or just a shift in perspective.
In this way of looking, prayer and Yoga are the same thing. One could say that if it is absolutely not possi- ble for somebody to practice Yoga, one can pray for Grace and reach the same state. Each prayer is an invocation, whether one is praying to this God or that God, or bowing before this statue or that statue, or using this name or that name. All prayers go to the place of truth in one’s own heart. All prayers are answered from the same place.
Even a prayer for material success or for mundane things, becomes a means of knocking on that door.
Any sincere prayer brings the at- tention from the head into the heart.
In fact that is the complete spiritual journey.
true-Self is already free and whole. The true-Self does not answer the prayer, but is the answer.
One can look at prayer in the way that everything one could possibly want is already present as one’s Self.
Because of deep rooted identifi cation with the body, one feels vulnerable and powerless. The needs of the body feel like one’s own needs, and the fears of the body become one’s own fears.
When one prays intensely, the prayer removes the barrier of the conditioning and reveals the heart where the prayer is already answered.
Another way to understand prayer is that in a sense, all desires are prayers, and all prayers get answered sooner or later. The problem is that in a state of unconscious living, many desires exist in contradiction to one another. For example, one may have a desire to eat a lot of tasty food, and also a desire to be slim. So, these two prayers will cancel each other out. One may desire to have a peaceful uncom- plicated life and also seek complex re- lationships.
As one becomes quieter and quiet- er through Chup Sadhana or whatever practice, one fi nds that the thinning out of desires and Silence are the same thing. Desires create a wall between individual awareness and the Univer- sal Awareness. As the desires dissolve, this artifi cial separation also dissolves and individuality and Universality be- come one silent space. In this Silence, in this state of ‘nothing’ all joy is seen as the joy of the Source. At this stage, desires, which were so important, start to feel like disturbance, and the desire- less state is seen as the state of Grace.
Yoga of Silence or Chup Sadhana-14